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कविता

गूँगापन

बेल्‍ला अख्‍मादूलिना


किसमें थी इतनी शक्ति और इतना विवेक?
कौन छीन ले गया मेरे गले की आवाज?
रो नहीं पाते उसके लिए
मेरे गले के स्‍याह जख्म।

ओ मार्च! सम्‍मानोचित है तुम्‍हारी प्रशंसा, तुम्‍हारा प्रेम,
सरल, सहज है तुम्‍हारी हर रचना।
पर तोड़ चुकी है दम मेरे शब्‍दों की बुलबुल
अब शब्‍दकोश ही एक मात्र उद्यान है।
बर्फ, पहाड़ और झाड़ियाँ
चाहती हैं कि मैं गाती रहूँ उन्‍हें।
कोशिश करती हूँ कुछ बोलने की
पर होठों को घेर लेता है गूँगापन।

गूँगे मन का हर खण
होता है अधिक प्रेरणाप्रद,
उन्‍हें चाहते हैं सहेज कर रखना
जब तक संभव हो मेरे शब्‍द।

घोंट डालूँगी गला, मर जाऊँगी, कहूँगी झूठ
कि अब किसी के नहीं रहेंगे मुझ पर अहसान,
पर बर्फ से झुके पेड़ों के सौंदर्य का तो अभी तक
हो नहीं पाया है मुझसे बखान।

बस, कैसे भी रहत मिले
तनी हुई मेरी इन नसों को
सब कुछ रट डालूँगी मैं
जिसे गाने का आग्रह किया जायेगा मुझसे।

इसलिए कि गूँगी थी मैं
और पसंद थे मुझे शब्‍दों के नाम
और अचानक थक गयी, मर गयी मैं,
अब तुम स्‍वयं गाते रहोगे मुझे।

 


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